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Man of Letters

कितनी जगह लेती है एक कहानी? कुछ पन्ने, चंद लम्हे, जहन के किसी कोने में एक रॉकिंग चेअर जिनती जगह। कोई एक पूरा मौसम, कोई शहर, पूरी की पूरी ज़िंदगी … पता नहीं कितनी जगह लेती है एक कहानी।

​-अक्षय मिश्रा 

बंद रहने दो किवाड़ों को कि जिनके खुलने से कोई फर्क नहीं पड़ता घर की दीवारों पर। के जिनके खुलने से ना हिलता है उस कील पे लटका कैलेंडर, न धूल ही उड़ती है रोशनदानों से। ख़ामोश किताबें बैठी रहती हैं टेक लगाए की उनका कोई किरदार ही जी उठे इस मुसलसल चाटती दीमकों से झुंझलाकर कभी,  जिन्होंने उसके बचपन और जवानी के कुछ पन्ने नहीं बक्शे हैं। फर्श का कालीन अब कितना भी पटको नहीं लौटा पाएगा उन धारियों को जिनकी वजह से उसे सबसे अलहदा जानकर लाया गया था इस मकान में। बंद ही रहने दो उन किस्सों को की जिनको सुनकर किसी की आंखों पे ना मोर नाचें। मैं तो कहता हूं बंद ही रहने दो उन विचारों को कि जिनके ज़ाहिर होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

-अक्षय मिश्रा

जिन्दगी में अपना कोना होना बहौत माएने रखता है. ये एक आरामदायक कोना होता है जहाँ आप आराम से ऊँघ सकते है, सोच सकते हैं, अपनी कॉफ़ी को चुस्स्कियाँ ले लेकर पी सकते हैं और लिख पढ़ सकते हैं. अगर हम कोने को थोड़े बड़े परिवेश में समझने की कोशिश करें तो ये वो कोना होता है जहाँ खड़े होकर आप नीचे की गहराई का अंदाज़ा लगा सकते हैं, जहाँ खड़े होकर आपको रोमांच और डर का मिश्रित एह्साह होता है. दुनिया की अधिकतर कमाल की कहानियां इन्ही कोनो पर लिखी जाती हैं और यही से छलाँग लगा कर ख़तम कर दी जाती हैं. ऐसे कोने डरावने भी होते हैं, ये कोने आपको गुलाम बनने से रोकते हैं, शहरों में ऐसे कोनो की बहौत कमी है, इसीलिए गुलामी ज़्यादा है. छोटे शहरों में तो किसी भी पेड़ के नीचे छावं में या छत पर अकेले ठंडी रातों में शाल के भीतर ऐसे कोने मिल जाते हैं. हर किसी के पास अपना कोना होना ही चाहिए. यहाँ बैठना, खड़े होना, सोचना थोडा रिस्की है क्यूंकि अगर आप ज़्यादा देर यहाँ वक़्त बिताते हैं तो आप भेड^ नहीं रह जाते इंसान हो जाते हैं.
 

(भेड़ एक कमाल का मासूम दिखने वाला प्राणी है इन पंक्तियों में भेड़ कहने का मतलब भेड़ो की बेईज्ज़ती करना कतई नहीं है अपितु उस स्तिथि को दर्शाना है जहाँ दर्जनों जानवर एक साथ एक ही दिशामें हांक दिए जाते हैं.)

-अक्षय मिश्रा

मैं जहां भी रहा हूँ मेरे आसपास पहाड़ हमेशा रहा है हां उसकी सूरत ज़रूर बदलती रही है कभी पहाड़ सचमुच का था जो मेरी घर की खिड़की से दिखता था मुझे लगता था की वो इतना दूर क्यों है पास रहता तो बेहतर था फिर धीरे धीरे पहाड़ मेरे पास आता गया तब मुझे लगा ये वो पहाड़ नही है ये तो कोई और पहाड़ है उफ़्फ़ . . . . ये तो मुसीबतों का पहाड़ है , पर जब तक ये समझ पाता वो मेरे सामने था ।

मुझे लगा कि इससे तो नही भागा जा सकता ये बड़ा भी है चलो ऐसा करते हैं कुछ और पहाड़ बनाते हैं, सपनों के पहाड़, रिश्तों के ,ख्वाहिशों के पहाड़, में दिन रात पहाड़ बनाने में लग गया कुछ सालों में पहाड़ बन गए और मैं उनसे घिर गया अब मुझे वो मुसीबतों का पहाड़ नही दिखता था क्योंकि मेरे चारो तरफ मेरे पसंदीदा पहाड़ थे जो मैंने खड़े किये थे । पर अब मैं इन पहाड़ो से ऊब चुका था मुझे सचमुच का पहाड़ चाहिये था तो एक दिन मैं शहर से दूर निकल गया रास्ते लंबे होते गए पक्की सड़क हाईवे मैं बदल गई फिर कच्ची सड़क मैं बदल गई मिट्टी लाल होती गई और मैं घाटियों से गुज़रता हुआ पहाड़ों में पहुँच गया यहां हवा हल्की थी और मन शांत था। मैंने पहाड़ की चोटी पर चढ़ कर देखा शहर के बीचोंबीच मुझे एक पैसों का पहाड़ दिखा, कुछ दिनों में मेरे मन ने फिर करवट ली और मै उसकी तरफ चल दिया मैंने चलते चलते पीछे पलट कर देखा मेरे साथ आदमियों का पहाड़ चल रहा था । मैं रुक गया मुझे अब वो पहाड़ भी नही चाहिये था मन न जाने क्यों फिर बदल गया मुझे अब एक ड्राइंग बुक पर पेंसिल से बना हुआ पहाड़ चाहिये था जिसमें मोम कलर से रंग भर दिए थे
मैं घर वापस आया तो मेरी पांच साल की बेटी ने अपनी ड्राइंग बुक पे ठीक वैसा ही पहाड़ बना के रखा था और उसमे मोम कलर से रंग भर रही थी। मैंने उससे वो पहाड़ मंगा तो उसने मुझे वो पन्ना फाड़कर दे
दिया वो पहाड़ अभी भी मेरी कमीज़ की जेब मे है और मैं अपनी पांच साल की बेटी को पहाड़ों की कहानियां सुना रहा हूँ।

- अक्षय मिश्रा 

रात के 3 बजे जब तुम नींद की चादर ओढ़े सो रहे होंगे उस वक़्त कई सफेद पन्ने काले हो रहे होंगे। 

सुबह -सुबह जब तुम अपने अपने काम पर जा रहे होंगे 

वो अब एक मीठी नींद सो रहे होंगे,

शाम को जब तुम अपनी अपनी नौकरियों से लौट रहे होंगे ये लोग चुपके से तुम्हारी चाय में आपनी रातों को लिखी कहानियां घोल जाएंगे और तुमको फिर से ज़िंदा कर जाएंगे । तुम अपना काम करो वो अपना काम करेंगे , वो श्रापित लोग हैं जिन्होंने कला को चुना है और तुम भी श्रापित हो जिसने भीड़ होना चुना है दोनों के श्राप अलग अलग हैं और कष्ट अलग अलग पर चुना तो तुम दोनो ने ही है अपने अपने श्राप को ।
अब तो न तुम मुक्त होंगे और न वो ।

सब ऐसे ही चलता जाएगा . . . ।

-अक्षय मिश्रा

कभी कभी जब आप राह पे चलते चलते रियर व्यू मिरर में पीछे छूटती चीज़ों को देखते हैं तो रास्ते भागते हुए दिखते हैं और आप वहीं के वहीं स्थिर

पर सत्य कुछ और ही होता है, न रास्ते भाग रहे होते हैं ना आप, बस वक़्त भाग रहा होता है , अभी भी वही हो रहा है शायद । 

पर एक थ्योरी के मुताबिक वक़्त तो कांस्टेंट है ।

तो चल क्या रहा है ? बीत क्या रहा है ? छूट क्या रहा है ?

-अक्षय मिश्रा

कुछ कहानियां दरो दीवार तलाशती हैं, तो कुछ दरारों से रिस रिस कर अपने होने का निशान छोड़ जातीं हैं। बाहर बेखौफ घूमती इन बेशर्म कहानियों को कोई सलीक़ा सिखाओ, इनके पैरों में बेड़ियां लगाओ, और उन कहानियों को जिन्होंने छोड़ रखें हैं निशान दरारों की शक़्ल में उन्हें छोड़ दो उनके हाल पर ख़ुदा के लिए उनपर तरस न खाओ।

​-अक्षय मिश्रा 

मैंने तुम्हें और तुम्हारी कहानियों को घोल रखा है अपने भीतर, तुम कॉफी के स्वाद सी जुबां पे चली आती हो कभी कभी अचानक और भुलाए नहीं भूलतीं ये कौन सी शरारत है तुम्हारी जो तुम्हारे जाने के बाद मुझको छेड़ रही है । कहीं सुना था कि हर कोई जो आपके साथ रहा हो कभी कुछ वक़्त वो अक्सर कुछ न कुछ आपका आपमे से ले जाता है ।

पता नही था कि तुम क्या ले गईं थी मुझमे से मेरा । मार्च के महीने में भी ठंड से उतना ही सिहर रहा था मेरा मन जैसे दिसंबर की ठिदुरती रात को निकल जाते थे हम शिमला की सर्दियों में मोटे ओवरकोट पहने, और घर आकर गर्म कॉफी की चुस्कियों में डूब जाते थे बिस्तर की सलवटों में । 8.ठीक वैसे ही तुम कॉफी के स्वाद सी जुबां पे चली आती हो कभी कभी अचानक और भुलाए नहीं भूलतीं ये कौन सी शरारत है तुम्हारी जो तुम्हारे जाने के बाद मुझको छेड़ रही है ।

​-अक्षय मिश्रा 

शर्त जो बचपन में हम लगाया करते थे एक दूसरे से की देखें कौन जल्दी पहुँचता है घर 

देखो तुम पहुँचे बैठे हो और मैं अब तक रास्ता ढूँढ रहा हूँ ।

उस दिन भागते भागते एक तितली मिल गई मुझे कहीं किसी मोड़ पे फिर मैं उसके पीछे हो लिया तो उसने मुझे एक जुगनु से मिलवाया जो जगमगाता है रातों में, फिरता है जंगलो में, और होता है हर उस की कहानियों में जो जंगलों से गुजरा हो कभी । बस इन्ही सब मे थोड़ा वक्त लग गया 

शर्त की जिसमें होती थीं शरारतें मुठ्ठी भर भर के, देखो आज तक कितनी ज़िद है मेरी इन शर्तों में
कितना कुछ बदल गया है तब से अब तक।
पर शर्तें तो मैं आज भी लगाए बैठा हूँ अपनी तरह से जीने की ,
इसमे कैसे जीतोगे मुझसे ।

​-अक्षय मिश्रा 

“मेरी कहनियों से”

 

किरदारों पर अगर लगाम ना लगाई  जाए तो कहानियाँ भटक जातीं हैं और अगर लगाम ज़ादा कस दी तो किरदार मर जाते है रोबोट बन जाते हैं 

 

 

 

मेरी कहानियों के किरदार किताबों के बाहर झांकते हैं, लोगों से मिलते हैं, कॉफ़ी का सिप लेते हैं और घुल जाते हैं उनके ज़हन में कॉफ़ी के ख़त्म  होते होते 

 

 

मैं सिर्फ़ कहानियाँ नहीं लिखता में आपको कहानी महसूस करा  सकता हूँ, मेरे किरदार पन्नो तक सीमीत  हीं वो आपकी ज़िंदगी में हैं। आपके  पलो  को जे रहे हैं आपके साथ, आप जिनके साथ उठते बैठते हैं सोते है रहते हैं जिनके बारे में आप सोचते हैं वो सब मेरे किरदार हैं 

 

 

 

 

अरे भई ना ना मैं नहीं लिखता कहानी- वहानी  मुझे तो कुछ बीज मिल जाते हैं कहीं ना कहीं से हर रोज़ और मैं बस उनको बो देता हूँ अपने ज़हन में फिर सींचता रहता हूँ रातभर  सुबह तक पता नहीं कैसे पनप जाती है एक कहानी ।

 ना  ना मैं सच कह रहा हूँ  कहनियाँ ख़ुद बनती है में नहीं लिखता कोई कहनी वहानी 

अब देखें ये बीज जो जो बोया है अभी अभी सुबह क्या बनता है 

                                                                                                                बीचोंबीच 

 

एक ईरानी  कैफ़े में बैठे बैठे ढलती हुई शाम देखते वक़्त न जाने क्यूँ मेरे ज़हन में ये ख़याल बार बार आ रहा था की…

 जीया गया जीवन बीतता नहीं चिपका रहता है ज़हन से जैसे हड्डियों से मांस और मांस से त्वचा। हर बार जितना हम जीते जाते हैं   ये मांस बढ़ता जाता है, त्वच मोटी होती जाती है।और फिर भार बढ़ने लगता है। कितना भी दौड़ लो कसरतें कर लो, खाना पीना कम कर दो ये भार बढ़ता ही जाता है ये जीया गया जीवन होता है जो कभी छूटता नहीं पीछे। चिपका रहता है बदन से जैसे हड्डियों से मांस और मांस से त्वचा। मैं वजन की बात नहीं कर रहा ये भार दूसरा है जो हर वृध के पास होता है फिर चाहे वो कितना ही पतला दुबला  हो या वज़नदार।

 

ढलती हुई शाम और ढलती हुए उम्र  में काफ़ी समानताएँ  होतीं हैं। दोनो ही काफ़ी कुछ देख चुकी होतीं हैं और परिपक्व हो चुकीं होतीं हैं, ठहर चुकी होतीं हैं पर रुकती नहीं चलती रहतीं हैं मध्यम गति से टिक- टिक, टिक - टिक किसी  पूरानी घड़ी के काटों  के मानिंद । मेरे टेबल के पास ही एक वृध पारसी जोड़ा बैठा शाम की चाय और ब्रुन मस्के  का आनंद ले रहा था। शायद ये रहे होंग़े मेरी प्रेरणा इस ख़याल से मैं उन्हें अपनी चाय की चूसकीयीयों के साथ चोर नज़रों से घूरता रहा की कोई कहानी मिल जाए। हम लिखने वाले भी कितने चोर होते हैं ना दूसरों का जीया अपने जिए में मिलाकर  ऐसे पेश करते हैं जैसे अपना जीया हो।

मक्कार लोग! हाहा। मैं काफ़ी देर तक बैठा रहा पर कोई कहानी नहीं मिली। हाँ उनका जीया आँखे भर कर देखता रहा और गद्गगद होता रहा पूरी शाम। किंग सर्कल के इस कैफ़े में कुछ बात है जो मुझे खींच लाती है बार बार। शायद मैं उम्र  के उस मोड़ पे हूँ जो ना किशोरावस्था है ना वृधवस्था पुल के बीचोंबीच खड़ा होना सुख भी है और एक भ्रम  भी। कभी कभी आप भ्रमवश खुद को किशोर समझने लगते हैं और अगले ही पल आपको ऐसा मालूम पड़ता है की आप अब बूढ़े हो चले हैं, और पुल  के उस ओ से इस ओर आ चुके हैं। पर असल में आप पुल  ले बींचों बीच होते हैं ना उस ओर ना इस ओर। या शायद कोई पुल  है ही नहीं। कभी था ही नहीं बस आपने बना रख़ा था अपने ज़हन में वो पुल । तो इस लिहाज़ से आपको आज़ादी है भटकने की इस ओर कभी उस ओर जो ओर भा  जाए उस ओर।

​-अक्षय मिश्रा 

                                                                                                        " समंदर का पानी चढ़ रहा था "

 

मुझे याद है समंदर  का पानी जब तेज चढ़ रहा था, मैं अपने जीवन में कविताएँ कर रहा था। 

लोग भय से व्याप्त थे इतर उतर भाग रहे थे। ऊँची जगहों पर जाने के रास्ते तलाश रहे थे। मुझे याद है मैं समंदर में गहरा उतर रहा था। उन  दिनों  जब समंदर का पानी तेज चढ़ रहा था, मैं अपने जीवन में कविताएँ कर रहा था। मैंने समंदर से कवितायें करते हुए पूछा थे यूँ ही  तुम्हें  क्या लगता है  ये तुमसे बच जाएँगे? ये जो भाग रहे हैं, चिल्ला रहे हैं क्या बच पाएँगे?

समंदर चुप था उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैं घंटों जवाब के इंतेज़ार में बैठा रहा पर उसने कोई जवाब  नहीं दिया। मैं कविताएँ करने लगा मुझे अच्छी  तरह से याद है उन दिनों  समंदर का पानी चढ़ रहा था। भागते जान बचाते लोग दूसरों के बारे में कम ही  सोचते हैं। ठीक ठीक तो याद नहीं। पर दूर से हाँ बहौत दूर से किसी ने आवाज़ ज़रूर लगाई थी, “ ऊँची जगह पे जाओ समंदर  का पानी चढ़ रहा है।”

पर मैं तुम्हें  जनता था मुझे गहरे उतरना था  पर गहरे उतरने में डूबने का भी ख़तरा रहता है, पर ख़तरा तो उनके से गिरने में भी रहता है । मैं गिरना नहीं चाहता था । मेरे आसपास बहौत से लोग गिर रहे थे या गिरे हुए थे। मैं गहरे उतरना चाहता था, मैं वहीं बैठे कविताएँ करना चाहता था। जीवन पर मृत्यु पर पानी और आकाश पर गहराई पर। पर ऊँचाई पर नहीं, पता नहीं क्यूँ? कुछ देर बाद वो दूर से आती आवाज़ भी ग़ायब हो गई। मानो और दूर चली गई या पता नहीं क्या हुआ।  पर आवाज़ बंद हो गई। मैंने देखा मेरी कविताएँ भीग गईं हैं पानी चढ़ गया है बुलबुले उठ रहे हैं। बहौत से लोग पानी की सतह पर थे मैंने सर उठा कर देखा सूरज पानी के अंदर झांक रहा था। वो लोग छटपटा  रहे थे, हाथ पाँव  मार रहे थे।

मैं ….

 

मैं शायद गहरे उतर गया था। उस वक़्त जब मेरी लिखी कविताएँ भीग रहीं थीं, काग़ज़ से स्याही निकलकर पानी में घुलने लगी थी। मैं कविताएँ कर रहा था।अब और लिखने का कोई औचित्य नहीं था मैं कविता हो रहा था। पानी चढ़ गया था मैं गहरे उतर गया था। 

​-अक्षय मिश्रा 

                                                                                               अब मैं कविताएँ नहीं लिख़ पाता 

कविताएँ झरने जैसा है, जो किसी पहाड़ी की चोटी से तो कभी पत्थरों के बीच की दरार से निकलता है। अथाह पानी प्रवाह अपने अंदर के भावों को लिए ज़ोर  से तेज आवाज़ से गिरता है। कहानियाँ किसी नदी की तरह होतीं हैं।जो जाकर मिलती हैं अंततः  समंदर में। वो ज़्यादा शोर नहीं करतीं पर गहरा प्रभाव छोड़ देतीं हैं अंदर।नदी पार करने में वक़्त लगता है। उसमें तैरने गोते लगाने का अलग सुख है। झरना दूर से बैठकर देखने में अच्छा लगता है।  उसके ठीक नीचे बैठो तो पानी की तेज धार से चोटें लगने लगतीं हैं। कवितायें अपने अंदर एक साथ एक ही पल में कई भाव पैदा कर देतीं हैं। और पल में झगझोर देतीं हैं। या सुकून दे देतीं हैं। कहानी पड़ते वक़्त आपके अंदर कछ भी तुरंत नहीं घटता। पाँच दस पन्नो के बाद बस एक सुरूर चढ़ने लगता है। मानो आप नाव में बैठे हों और नदी हिलोरे मार रही हो। डर, रोमांच और प्रेम परत डर परत होकर फूटता है, पर फूटकर बिखरता नहीं आपके अंदर फैलता जाता है। उसमें एक अलग सुख है जो धीरे धीरे मिलता है डर तक रहता है।

कविताएँ तुरंत सुख, दुःख  या सुकून या बेचैन कर जातीं हैं। कविताएँ नौजवानी की तरह होतीं हैं  कहनियाँ अधेड़ उमर की तरह। शायद मैं अधेड़ उमर का हो रहा हूँ इस लिए मुझे कविताओं  से ज़्यादा कहानियाँ  भाने लगीं हैं और सच तो ये हैं कि अब मैं कविताएँ नहीं लिख़ पाता । 

रात सोने के लिए होती है पर मैं अकसर उसमें कुछ ढूंढ़ता रहता हूँ चाँद तारों की रौशनी मे। पूरी रात वो "कुछ " ढूँढ़ते- ढूँढ़ते बीत जाती है और सुबह मेरी आँखों के नीचे बिखर जाती है स्याह घेरे बनकर। पर "कुछ" के मिल जाने का सुख बहौत अलग सा होता है । अगली शाम को ढलते सूरज में बैठकर खंगोलता हूँ वो जो रातभर ढूंढ-ढूंढ के निकाला था, इसी तरह कई कहानियां इकठ्ठी की हैं मैंने ।

​-अक्षय मिश्रा 

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